गजलें और शायरी >> घर की खुशबू घर की खुशबूसुरेश कुमार
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प्रस्तुत है पाकिस्तानी शायरी...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्राक्कथन
आधुनिक उर्दू शायरी को नया रंग-रूप प्रदान करने में जिन पाकिस्तानी शायरों
की महत्वपूर्ण भूमिका रही है, उनमें से तौसीफ़ तबस्सुम का नाम विशेष रूप
से उल्लेखनीय है। आम बोल-चाल की शब्दावली से अपनी अनुभूतियों को
अभिव्यक्ति देने और उसे साधारण जन की आवाज़ बना देने वाले तौसीफ़ तबस्सुम
मुख्यतः ग़ज़ल के शायर हैं।
यही हुआ
कि हवा ले गयी उड़ा के मुझे
तुझे तो कुछ न मिला ख़ाक में मिला के मुझे
तुझे तो कुछ न मिला ख़ाक में मिला के मुझे
आधुनिक दौर में मनुष्य अपनी आशातीत उपलब्धियों (वैज्ञानिक और तकनीकी) के
बावजूद जितना असहाय और अकेला होता जा रहा है और तमाम मूल्य जिस तरह से
अपनी अर्थवत्ता खोते जा रहे हैं, उसे देखकर कोई भी संवेदनशील व्यक्ति शायद
यही कह उठेगा
पहले
दीवार उठायी थी कि खुद को देखूँ
अब यहाँ कोई नहीं देखने वाला मुझको
अब यहाँ कोई नहीं देखने वाला मुझको
उत्तर प्रदेश के बदायूँ जनपद में 1928 में जन्मे तौसीफ़ तबस्सुम उस पीढ़ी
के शायर हैं, जिसने अपनी किशोरावस्था में विभाजन की विभीषिका को अपनी
आँखों से देखा है और जिसके नक्श आज भी उसके मन-मस्तिष्क पर कहीं न कहीं
अंकित हैं।
पहली बार सफ़र पर निकले, घर की खुशबू साथ
चली
झुकी मुँडेरें, कच्चा रास्ता, रोग बने रस्ते भर का
झुकी मुँडेरें, कच्चा रास्ता, रोग बने रस्ते भर का
और शायद कोई ऐसा अनुभव है जो अभिव्यक्ति पाने के लिए छटपटा रहा
है—
मौजज़न
मुझमें है दरिया कोई
काश मिलता उसे रस्ता कोई
काश मिलता उसे रस्ता कोई
तौसीफ़ तबस्सुम की शायरी को पढ़ते हुए हमें ऐसा बिल्कुल महसूस नहीं होता
है कि हम किसी दूसरे मुल्क के शायर की रचनाएँ पढ़ रहे हैं। उनकी शायरी में
आज भी भारतीय संस्कृति की झलक स्पष्ट दिखायी देती है। कभी ऐसे ही किसी
पाकिस्तानी शायर की कविताएँ पढ़कर राही मासूम रज़ा ने लिखा
था—‘‘हिन्दुस्तान देश की राजनीतिक सीमाएँ
भले ही सिमट गयी हों, किन्तु इस शब्द की सीमाएँ अभी नहीं सिमटीं और आशा
करने में क्या हानि है कि ये देश कभी नहीं बँटेगा।’’
कोई भी संवेदनशील रचनाकार अपने परिवेश और देश की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों से अप्रभावित होकर न जी सकता है और न कोई सृजन ही कर सकता है। बहुत हद तक हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के नागरिकों की समस्याएँ भी एक जैसी ही हैं। शायद यही कारण है कि हमें वहाँ की शायरी में भी अपनी खुद की आवाज़ सुनायी देती है।
कोई भी संवेदनशील रचनाकार अपने परिवेश और देश की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों से अप्रभावित होकर न जी सकता है और न कोई सृजन ही कर सकता है। बहुत हद तक हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के नागरिकों की समस्याएँ भी एक जैसी ही हैं। शायद यही कारण है कि हमें वहाँ की शायरी में भी अपनी खुद की आवाज़ सुनायी देती है।
शौक़-ए-तामीर बसायेगा ख़राबे क्या-क्या
आदमी है तो हर एक शहर में सहरा होगा
पाकिस्तान में तौसीफ़ तबस्सुम के अनेक उर्दू काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए
हैं। भारत की प्रायः सभी प्रमुख उर्दू पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ
प्रकाशित होती रही हैं। पाकिस्तानी शायरी में श्रृंखला के अंतर्गत
देवनागरी में उनकी बेहतरीन ग़ज़लों और नज़्मों का संकलन पहली बार घर की
खुशबू शीर्षक से आपके समक्ष प्रस्तुत है। इस श्रृंखला की अन्य
प्रस्तुतियों की तरह यह संकलन भी आपको बेहद पसन्द आयेगा, ऐसा विश्वास है।
सुरेश कुमार
(1)
अजीब रंग थे दिल में जो आँसुओं में न थे
पस-ए-मिज़ा1 थे वो चेहरे कि चिलमनों में न थे
जो रो चुके तो यही बोलते दर-ओ-दीवार
हुए ख़ामोश कि जैसे कभी घरों में न थे
हमारी वजूअ2 ने पाबन्दियाँ क़बूल न कीं
मिसाल-ए-नश्शा थे हम, और साग़रों में न थे
बड़ा अज़ीम3 मुसव्विर4 था, डूबता सूरज !
शफ़क़5 के रंग मगर बुझते रोज़नों में न थे
चमन में रह के वो काँटें चुभो लिए हमने
कि इतने रंग तो शायद यहाँ गुलों में न थे
पस-ए-मिज़ा1 थे वो चेहरे कि चिलमनों में न थे
जो रो चुके तो यही बोलते दर-ओ-दीवार
हुए ख़ामोश कि जैसे कभी घरों में न थे
हमारी वजूअ2 ने पाबन्दियाँ क़बूल न कीं
मिसाल-ए-नश्शा थे हम, और साग़रों में न थे
बड़ा अज़ीम3 मुसव्विर4 था, डूबता सूरज !
शफ़क़5 के रंग मगर बुझते रोज़नों में न थे
चमन में रह के वो काँटें चुभो लिए हमने
कि इतने रंग तो शायद यहाँ गुलों में न थे
1. पलक के पीछे, 2. पद्धति, 3. महान, 4. चित्रकार, 5. क्षितिज पर फैली
लालिमा
(2)
काश इक पल ही ठहरता जाऊँ
कब तक एक उम्र ! गुज़रता जाऊँ
पाँव रक्खूँ तो सरापा1 देखूँ
मौज-ए-पायाब2 से डरता जाऊँ
अब तो बस में नहीं परवाज़3 अपनी
पर समेटूँ तो बिखरता जाऊँ
शहर आबाद हैं ज़िन्दाँ4 की तरह
हर दरीचे पे ठहरता जाऊँ
आँखें पत्थर हुईं हर चेहरे पर
ख़्वाब हर आँख में भरता जाऊँ
हाथ मेहराब-ए-फ़लक5 तक पहुँचें
जब क़दम ख़ाक पे धरता जाऊँ
कब तक एक उम्र ! गुज़रता जाऊँ
पाँव रक्खूँ तो सरापा1 देखूँ
मौज-ए-पायाब2 से डरता जाऊँ
अब तो बस में नहीं परवाज़3 अपनी
पर समेटूँ तो बिखरता जाऊँ
शहर आबाद हैं ज़िन्दाँ4 की तरह
हर दरीचे पे ठहरता जाऊँ
आँखें पत्थर हुईं हर चेहरे पर
ख़्वाब हर आँख में भरता जाऊँ
हाथ मेहराब-ए-फ़लक5 तक पहुँचें
जब क़दम ख़ाक पे धरता जाऊँ
1. सर से पाँव तक, 2. उथले पानी की तरंग,
3. उड़ान, 4. कारागार, 5. आकाश की मेहराब
(3)
सवारी गुल की कब निकली थी, रहवार-ए-सबा1 क्या है
किसे अब याद है उस शहर की आब-ओ-हवा क्या है
अँधेरा गामज़न2 है हर तुलूअ-ए-मेहर3 के पीछे
खुदाया ! नूर-ओ-जुल्मत4 का अज़ल से सिलसिला क्या है
बहारों को दिया है हुक़्म-एक-तज़ईन-ए-चमन5 किस ने !
हवा-ए-ज़ख़्माज़न6 से रब्त खिलते फूल का क्या है
दबे पाँव हवा चलती है आहट तक नहीं होती
किसी ने कान में वहशी के चुपके से कहा क्या है
परिन्दे शाम के, क्यों सुरमई झीलों पे उतरे हैं
चलें हम भी उसे देखें वो चश्म-ए-सुरमा-सा क्या है
दिल इस को बेवफ़ा कहता तो है, लेकिन दम-ए-रुख़सत7
सितारा-सा, सर-ए-मिज़गाँ8 उभरता-डूबता क्या है
कोई वहशी नहीं गर बन्द इस सीने के जिन्दाँ में
तो फिर हर साँस में, हर बार अन्दर टूटता क्या है
किसे अब याद है उस शहर की आब-ओ-हवा क्या है
अँधेरा गामज़न2 है हर तुलूअ-ए-मेहर3 के पीछे
खुदाया ! नूर-ओ-जुल्मत4 का अज़ल से सिलसिला क्या है
बहारों को दिया है हुक़्म-एक-तज़ईन-ए-चमन5 किस ने !
हवा-ए-ज़ख़्माज़न6 से रब्त खिलते फूल का क्या है
दबे पाँव हवा चलती है आहट तक नहीं होती
किसी ने कान में वहशी के चुपके से कहा क्या है
परिन्दे शाम के, क्यों सुरमई झीलों पे उतरे हैं
चलें हम भी उसे देखें वो चश्म-ए-सुरमा-सा क्या है
दिल इस को बेवफ़ा कहता तो है, लेकिन दम-ए-रुख़सत7
सितारा-सा, सर-ए-मिज़गाँ8 उभरता-डूबता क्या है
कोई वहशी नहीं गर बन्द इस सीने के जिन्दाँ में
तो फिर हर साँस में, हर बार अन्दर टूटता क्या है
1. मन्द समीर का घोड़ा, 2. चलता हुआ, 3.
सूर्योदय 4. प्रकाश और अंधकार 5. उपवन के श्रृंगार का आदर्श, 6. मिज़राब
से वाद्ययंत्र, 7. विदा के समय, 8. पलकों में बजाने वाली वायु
(4)
ये गिर्द-ओ-पेश1 जिसका आईना है
उसे देखूँ जो मुझको देखता है
सितम ये है कि नामौजूद लम्हा
मुझे हर्फ़-ए-ग़लत गरदानता है
जो मंजर आँख पर है, लम्हा-लम्हा
मिरे सीने के अन्दर खुल रहा है
सर-ए-शाम इस तरह लगता है जैसे
कोई आवाज़ देकर छुप गया है
सदफ़2 में आँख की आया है क्योंकर
वो इक क़तरा जो दरिया-आशना है
उसे देखूँ जो मुझको देखता है
सितम ये है कि नामौजूद लम्हा
मुझे हर्फ़-ए-ग़लत गरदानता है
जो मंजर आँख पर है, लम्हा-लम्हा
मिरे सीने के अन्दर खुल रहा है
सर-ए-शाम इस तरह लगता है जैसे
कोई आवाज़ देकर छुप गया है
सदफ़2 में आँख की आया है क्योंकर
वो इक क़तरा जो दरिया-आशना है
1. आसपास और सामने, 2. सीप
(5)
कभी ख़ुद मौज साहिल बन गयी है
कभी साहिल, कफ़-ए-दरिया1 हुआ है
पलट कर आयेगा बादल की सूरत
इसी ख़ातिर तो दरिया बह रहा है
महकते हैं जहाँ खुशबू के साये
तसव्वुर भी वहाँ तस्वीर-सा है
हवा से ख़ाक पर गिरता है ताइर2
तबस्सुम, ये तलाश-ए-रिज़्क3 क्या है
कभी साहिल, कफ़-ए-दरिया1 हुआ है
पलट कर आयेगा बादल की सूरत
इसी ख़ातिर तो दरिया बह रहा है
महकते हैं जहाँ खुशबू के साये
तसव्वुर भी वहाँ तस्वीर-सा है
हवा से ख़ाक पर गिरता है ताइर2
तबस्सुम, ये तलाश-ए-रिज़्क3 क्या है
1. नदी की हथेली, 2. पक्षी, 3. जीविका की
खोज
(6)
तुम अच्छे थे, तुमको रुसवा1 हमने किया
फिर कहना क्या तुमने कहा, क्या हमने किया
ऐ मेरे दिल ! तनहा दिल ! चुप-चुप रहना
पहले भी तो शोर किया, क्या हमने किया
आँसू सारे पलकों में ही जज़्ब हुए
दरिया को तस्वीर-ए-दरिया2 हमने किया
नक़्शगरों3 ! कब हमने मंजर बदला है
चाँदी बाल और सोना चेहरा हमने किया
आँसू ने दिल का हर दाग़ मिटा डाला
पानी ने फिर नक़्श हुवैदा4 हमने किया
ख़ाक जो सहरा-सहरा उड़ती फिरती थी
सर में डाली एक तमाशा हमने किया
बाद अपने अब कौन भला याद आयेगा
अपने नाम पे ख़त्म ये खुत्बा5 हमने किया
फिर कहना क्या तुमने कहा, क्या हमने किया
ऐ मेरे दिल ! तनहा दिल ! चुप-चुप रहना
पहले भी तो शोर किया, क्या हमने किया
आँसू सारे पलकों में ही जज़्ब हुए
दरिया को तस्वीर-ए-दरिया2 हमने किया
नक़्शगरों3 ! कब हमने मंजर बदला है
चाँदी बाल और सोना चेहरा हमने किया
आँसू ने दिल का हर दाग़ मिटा डाला
पानी ने फिर नक़्श हुवैदा4 हमने किया
ख़ाक जो सहरा-सहरा उड़ती फिरती थी
सर में डाली एक तमाशा हमने किया
बाद अपने अब कौन भला याद आयेगा
अपने नाम पे ख़त्म ये खुत्बा5 हमने किया
1. निन्दित, 2. नदी का चित्र, 3. चित्रकारों, 4. प्रकट, 5. प्राक्कथन
(7)
आकर लगा है सख़्त जो पत्थर, उठाइये
दीवानगी में होश कहाँ सर उठाइये
ग़म से फ़सील-ए-जिस्म1 तो मिस्सार2 हो चले
दीवार एक और भी अन्दर उठाइये
बरसे जो खुल के अब्र तो दिल का कँवल खिले
कब तक मिज़ा-मिज़ा3 पे समन्दर उठाइये
तपती हुई जमीन पे रक्खें कहाँ क़दम
जलती हुई फ़ज़ाएँ हैं क्या पर उठाइये
गर्दिश में रहते बोलते गाते लहू के साथ
या’नी क़दम न जात4 से बाहर उठाइये
तौसीफ़ फ़न यही है कि इस दिल की ख़ाक से
पैकर5 खुद अपने क़द के बराबर उठाइये
दीवानगी में होश कहाँ सर उठाइये
ग़म से फ़सील-ए-जिस्म1 तो मिस्सार2 हो चले
दीवार एक और भी अन्दर उठाइये
बरसे जो खुल के अब्र तो दिल का कँवल खिले
कब तक मिज़ा-मिज़ा3 पे समन्दर उठाइये
तपती हुई जमीन पे रक्खें कहाँ क़दम
जलती हुई फ़ज़ाएँ हैं क्या पर उठाइये
गर्दिश में रहते बोलते गाते लहू के साथ
या’नी क़दम न जात4 से बाहर उठाइये
तौसीफ़ फ़न यही है कि इस दिल की ख़ाक से
पैकर5 खुद अपने क़द के बराबर उठाइये
1. शरीर की दीवार, 2. ध्वस्त, 3. पलक-पलक,
4. अस्तित्व, 5. आकृति
(8)
इतना पानी हो जहाँ, क्यों कोई प्यासा डूबे
वो ख़जालत1 है कि खुद ख़ाक में दरिया डूबे
सूरत-ए-आबला-ए-मौज2 है, दिल सीने में
जो लिये फिरते हैं हम रख़्त-ए-सफ़र3 क्या डूबे
ताअदब सर से गुज़रती हुई मौजों को सुनो
किस लिए शोर है भागे, तह-ए-दरिया डूबे
एक ही मौज-ए-फ़ना4 ले गयी सबकुछ और हम
इस तकल्लुफ़ में रहे कौन अकेला डूबे
इसी आईने में अब क़ैद-ए-जुदाई5 काटो
किस लिए अक्स बने, बहर-ए-तमाशा6 डूबे
अक़्ल जलता हुआ सूरज है सुकूँ क्या पाये
किस तरह चश्मा-ए-खुर्शीद7 में साया डूबे
मौज़ दरिया में रवाँ, साहिल-ए-ग़र्क़ाब8 से है
पानी गर शहर में आ जाये तो क्या-क्या डूबे
जिस्म सीसे की तरह भारी हैं, रूहें पत्थर
तहनशीं9 हो गये हम, कोई रहे या डूबे
वो ख़जालत1 है कि खुद ख़ाक में दरिया डूबे
सूरत-ए-आबला-ए-मौज2 है, दिल सीने में
जो लिये फिरते हैं हम रख़्त-ए-सफ़र3 क्या डूबे
ताअदब सर से गुज़रती हुई मौजों को सुनो
किस लिए शोर है भागे, तह-ए-दरिया डूबे
एक ही मौज-ए-फ़ना4 ले गयी सबकुछ और हम
इस तकल्लुफ़ में रहे कौन अकेला डूबे
इसी आईने में अब क़ैद-ए-जुदाई5 काटो
किस लिए अक्स बने, बहर-ए-तमाशा6 डूबे
अक़्ल जलता हुआ सूरज है सुकूँ क्या पाये
किस तरह चश्मा-ए-खुर्शीद7 में साया डूबे
मौज़ दरिया में रवाँ, साहिल-ए-ग़र्क़ाब8 से है
पानी गर शहर में आ जाये तो क्या-क्या डूबे
जिस्म सीसे की तरह भारी हैं, रूहें पत्थर
तहनशीं9 हो गये हम, कोई रहे या डूबे
1. लज्जा, 2. तरंग के फफोले की तरह, 3.
यात्रा का सामान 4. मृत्यु की तरंग 5. विरह का कारावास, 6.
कौतुक का समुद्र 7. सूर्य का स्त्रोत, 8. डूबा हुआ किनारा, 9.
तल मैं बैठे हुए
बहार आती, तो कुछ मा’नी-ए-सफ़र1 खुलते
महकते फूल तो फिर तितलियों के पर खुलते
क़दम बँधे हैं सभी के ज़मीं के लंगर से
सफ़ीने बहते किधर बादबाँ2 अगर खुलते
मकीं जो होते तो हम भी कोई सदा देते
खुले न होते तो उन बस्तियों के दर खुलते
न लिखती मौज-ए-परीशाँ3 जो हाल दरिया का
जो तह के राज़ थे कब अह्ल-ए-ख़ाक4 पर खुलते
सब अह्ल-ए-दर्द5 बिलाख़िर6 ज़मीं का बोझ हुए
हवा के ज़ोर पे क्या ताइरों के पर खुलते
महकते फूल तो फिर तितलियों के पर खुलते
क़दम बँधे हैं सभी के ज़मीं के लंगर से
सफ़ीने बहते किधर बादबाँ2 अगर खुलते
मकीं जो होते तो हम भी कोई सदा देते
खुले न होते तो उन बस्तियों के दर खुलते
न लिखती मौज-ए-परीशाँ3 जो हाल दरिया का
जो तह के राज़ थे कब अह्ल-ए-ख़ाक4 पर खुलते
सब अह्ल-ए-दर्द5 बिलाख़िर6 ज़मीं का बोझ हुए
हवा के ज़ोर पे क्या ताइरों के पर खुलते
1. यात्रा के अर्थ, 2. पोतपट, 3. बिखरी हुई
तरंगें, 4. मनुष्य 5. पीड़ित लोग, 6. अंततः
(9)
आख़िर खुद अपने ही लहू में डूब के सर्फ़-ए-वफ़ा1 होगे
क़दम-क़दम पर जंग कड़ी है कहाँ-कहाँ बरपा2 होगे
हाल3 का लम्हा, पत्थर ठहरा, यूँ भी कहाँ गुज़रता है
हाथ मिलाकर जानेवालों ! दिल से कहाँ जुदा होगे
मौजौं पर लहराते तिनको ! चलो, न यूँ इतराके चलो
और ज़रा ये दरिया उतरा, तुम भी लब-ए-दरिया4 होगे
सोचो, खोज मिला है किसको राह बदलते तारों का
इस वहशत में चलते-चलते आप सितारा-सा होगे
सीने पर जब हर्फ़-ए-तमन्ना5, दर्द की सूरत उतरेगा
खुद ही आँख से टपकोगे और खुद ही दस्त-ए-दुआ6 होगे
सूखे पेड़ों की सब लाशें, ग़र्क़ कफ़-ए-सैलाब7 में हैं
क़हत-ए-आब से मरते लोगों ! बोलो अब क्या चाहोगे
बात ये है उस बाग़ में फूल से पत्ता होना अच्छा है
रंग और खुशबू बाँटोगे तो पहले रिज़्क़-ए-हवा8 होगे
ऐ मेरे नागुफ़्ता9 शे’रो ! ये तो बताओ मेरे बाद
कौन से दिल में क़रार करोगे किसके लब से अदा होगे
क़दम-क़दम पर जंग कड़ी है कहाँ-कहाँ बरपा2 होगे
हाल3 का लम्हा, पत्थर ठहरा, यूँ भी कहाँ गुज़रता है
हाथ मिलाकर जानेवालों ! दिल से कहाँ जुदा होगे
मौजौं पर लहराते तिनको ! चलो, न यूँ इतराके चलो
और ज़रा ये दरिया उतरा, तुम भी लब-ए-दरिया4 होगे
सोचो, खोज मिला है किसको राह बदलते तारों का
इस वहशत में चलते-चलते आप सितारा-सा होगे
सीने पर जब हर्फ़-ए-तमन्ना5, दर्द की सूरत उतरेगा
खुद ही आँख से टपकोगे और खुद ही दस्त-ए-दुआ6 होगे
सूखे पेड़ों की सब लाशें, ग़र्क़ कफ़-ए-सैलाब7 में हैं
क़हत-ए-आब से मरते लोगों ! बोलो अब क्या चाहोगे
बात ये है उस बाग़ में फूल से पत्ता होना अच्छा है
रंग और खुशबू बाँटोगे तो पहले रिज़्क़-ए-हवा8 होगे
ऐ मेरे नागुफ़्ता9 शे’रो ! ये तो बताओ मेरे बाद
कौन से दिल में क़रार करोगे किसके लब से अदा होगे
1. निष्ठा का व्यय 2. उपस्थित 3. वर्तमान
4. नदी के किनारे।
5. अभिलाषा का शब्द, 6. प्रार्थना का हाथ, 7. जल-प्लावन का पंजा, 8. वायु की जीविका, 9. अनकहे
5. अभिलाषा का शब्द, 6. प्रार्थना का हाथ, 7. जल-प्लावन का पंजा, 8. वायु की जीविका, 9. अनकहे
(10)
ग़म का क्या इज़हार करें हम, दर्द से
ज़ब्त ज़ियादा है
अब उस मौज़ का हाल लिखेंगे जिसमें दरिया डूबा है
जो भी गुजरनी है आँखों पर काश इस बार गुज़र जाये
सर्द हवा में जुल्म तो ये है पत्ता-पत्ता गिरता है
ख़्वाबों की सरहद पे हुआ है ख़त्म सफ़र बेदारी1 का
इक दिन शायद आन मिले वो शख़्स जो मुझमें रहता है
दिलज़दगाँ2 की भीड़ में जैसे हर पहचान अधूरी हो
तेरी आँखें मेरी हैं, पर मेरा चेहरा किसका है
अब उस मौज़ का हाल लिखेंगे जिसमें दरिया डूबा है
जो भी गुजरनी है आँखों पर काश इस बार गुज़र जाये
सर्द हवा में जुल्म तो ये है पत्ता-पत्ता गिरता है
ख़्वाबों की सरहद पे हुआ है ख़त्म सफ़र बेदारी1 का
इक दिन शायद आन मिले वो शख़्स जो मुझमें रहता है
दिलज़दगाँ2 की भीड़ में जैसे हर पहचान अधूरी हो
तेरी आँखें मेरी हैं, पर मेरा चेहरा किसका है
1. जागृति, 2. दुखियों
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